व्यक्ति जब स्वयं अपने किसी भाव के पूरा न होने के कारण दुखी हो जाता है तब दूसरे व्यक्तियों में उसे देख कर करुणा उत्पन्न होती है | प्रारंभ में उत्पन्न होने वाली करुणा ही कालान्तर में उस दुखी व्यक्ति से, जिसके लिए करुणा उत्पन्न हुई थी स्वयं के तुलनात्मक रूप से सुखी होने का भाव भी उत्पन्न करती है, जिस क्षण में यह भाव उत्पन्न होता है उस क्षण में करुणा की हत्या हो जाती है | और व्यक्ति किसी दुखी व्यक्ति की तुलना में स्वयं के सुखी होने का निर्दय सुख अनुभव करने लगता है | दुःख की बात यह है की समाज में अधिकांश व्यक्ति इस निर्दय सुख में ही स्वयं को सुखी मानते हैं |
शारीरिक सीमांओं में सीमित मात्र इन्द्रियों को तृप्त करने को ही भोग समझने वाले नहीं जानते की जो व्यक्ति उन्हें शारीरिक भोगों से उदासीन सा दिखाई दे रहा है, सब भोगियों से भी बड़ा भोगी है क्योंकि वह शारीर की सीमाओं को जनता हुआ उनसे ऊपर उठकर स्वयं की चेतना की विराटता का अनुभव भोग चूका है | सामान्य दृष्टिकोण से भोगी समझे जाने वाले लोगों की तुलना में एक योगी अनन्त की सीमा तक अनन्त को भोग लेने वाला भोगी कहा जा सकता है |
When a person is seen to be unhappy for lack of accomplishment of some of his ambition, others feel sympathy for him. Sympathy thus originated transforms later into a feeling of being comparatively happier than the person for whom sympathy initially originated. The moment, at which this feeling is born, the initial feeling of sympathy is dead. A person begins to feel a cruel joy of being happier than the unhappy one. It is distressing that majority of persons in society feel happy with this cruel joy. For them, someone else’s unhappiness in merely a means of feeling happier themselves.
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साधारण और असाधारण
साधारण शब्द का तात्पर्य है जिसे किसी अन्य ने धारण किया हुआ हो, जिसे स्वयं के होने के लिए किसी अन्य की आवश्यकता हो, ऐसे सभी साधारण कहे जाते हैं |असाधारण वो हैं जो स्वयं ही स्वयं के होने के लिए किसी अन्य की आवश्यकता नहीं है | जो अपनी पहचान खुद हैं, वही असाधारण हैं |जिन्हें अपने होने के लिए किसी अन्य की आवश्यकता नहीं होती, ऐसे महान व्यक्ति ही 'असाधारण' कहे जाते हैं |
Ordinary means those whom some one else has supported i.e. those who need someone to support their existence are all called as ordinary. Extraordinary or exclusive are those who do not need anybody’s support, because they support themselves, they do not need anybody for their existence. The one who is recognized by his own existence is extra ordinary or exclusive!
Such great persons who do not need anybody’s support for their existence are known as extraordinary.
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'ज्ञानी'
"सूर्य का जो प्रकाश,जलाने वाला साधारण दृष्टि से लगता है,वही प्रकाश चंद्रमा के प्रकाशित होने का कारण है | जो ज्ञान के प्रकाश की उग्रता को सहन कर प्रतिबिम्बित कर पाते हैं वे ही संसार में चन्द्रमा के समान शीतल धिखाई देते हैं | परन्तु याद रहे की चन्द्रमा की शीतलता ज्ञान की प्रखरता का घटा हुआ रूप है | वह चन्द्रमा की स्वअर्जित वस्तु नहीं है | प्रकाश देने वाले को जलना ही पड़ता है | यह चन्द्रमा का सौभाग्य है की सूर्य ने उसे स्वयं के प्रकाश को प्रतिबिम्बित करने के लिए चुना ऐसा पृथ्वी वासियों के दृष्टिकोण से लगता है | यथार्थ यह है की सूर्य स्वयं अपने ज्ञान के प्रखर तेज से दमक रहा है, जल रहा है | कोई उसके तेज को प्रतिबिम्बित कर रहा है की नहीं, वह उसकी चिंता नहीं करता | जो उसके प्रकाश के अंश के अंश को भी धारण नहीं कर पाता, मात्र प्रतिबिम्बित करता है वह मामूली चन्द्रमा भी सीमित दृष्टिकोण से देखने वाले को शीतलता देने वाला लग सकता है |
सूर्य के स्वयं अर्जित तेज की प्रखरता में जलने को समझने वाले जानते हैं की 'ज्ञानी' का जीवन भी आग में जलने के समान होता है |"
"Brightness of the sun, which for a lay observer is blazing, is also the cause of illuminating the moon. Those alone, who can bear with the intense brilliance of knowledge and can reflect it, appear cool like a moon in this world. But remember the coolness is but a scaled down form of brilliance of knowledge. One who emits light must burn. That the moon is chosen to reflect light of the sun by its grace is an observation of earthlings. Truth is that the sun is shining, blazing with the brilliance of his own knowledge, it completely overlooks whether its brilliance is being reflected or not by anybody. The modest moon, which cannot hold even a minute part of its brilliance, only reflects it; may appear to be emitting moonlight to be a casual observer with narrow vision.
Those who can realize the burning of the sun in his intense self-earned brilliance know that the life of a realized person is also like burning in the fires of wisdom.
" नासमझी से समझ के क्षण के आने तक की यात्रा गुरु से मिलने पर शुरू होती है |"
"The journey from ignorance to the moment of realization begins after begetting the grace of Guru."
"Brightness of the sun, which for a lay observer is blazing, is also the cause of illuminating the moon. Those alone, who can bear with the intense brilliance of knowledge and can reflect it, appear cool like a moon in this world. But remember the coolness is but a scaled down form of brilliance of knowledge. One who emits light must burn. That the moon is chosen to reflect light of the sun by its grace is an observation of earthlings. Truth is that the sun is shining, blazing with the brilliance of his own knowledge, it completely overlooks whether its brilliance is being reflected or not by anybody. The modest moon, which cannot hold even a minute part of its brilliance, only reflects it; may appear to be emitting moonlight to be a casual observer with narrow vision.
Those who can realize the burning of the sun in his intense self-earned brilliance know that the life of a realized person is also like burning in the fires of wisdom.
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" नासमझी से समझ के क्षण के आने तक की यात्रा गुरु से मिलने पर शुरू होती है |"
"The journey from ignorance to the moment of realization begins after begetting the grace of Guru."
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"चरित्र"
"चरित्र"
"आज लोगों ने चरित्र जैसे महान शब्द को सिर्फ काम तक ही सीमित कर दिया है, चरित्र शब्द से हम ऐसा समझते हैं की मृत्यु पर्यन्त की यात्रा में व्यक्ति कैसे अपनी यात्रा पूरी करता है | वह, उसका प्रयास, सफलता असफलता, समझ, न समझी सम्मिलित रूप से उसके चरित्र कहे जाते हैं | जिस समय चलते-चलते चलने की अति हो जाती है, उसी समय व्यक्ति के चरित्र का जन्म होता है |"
"People have narrowed the meaning of a great concept like character to erotic behavior. To me character means the way a person conducts himself during his journey from birth until this death. Himself, his efforts, success, failures, reason or lack of it all together form his character. While advancing when advance comes to end the character of the person is born."
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